सोमवार, 24 मई 2010

वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विकास में साहित्यकार एवं पत्रकारों का योगदान

देहरादून। भारतीय विज्ञान लेखक संघ उत्तराखंड चैप्टर की ओर से लोकप्रिय विज्ञान व्याख्यानमाला के अंतर्गत ‘वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विकास में साहित्यकार एवं पत्रकारों का योगदान’ विषय पर संगोष्ठी आयोजित हुई। इसमें विज्ञान, साहित्य और पत्रकारिता को एक-दूसरे का पूरक बताया गया है। साथ ही विज्ञान पत्रकारिता में गंभीर और सजग पत्रकारिता की आवश्यकता जताई गई।
रविवार को मंथन सभागार में आयोजित संगोष्ठी में बतौर मुख्य वक्ता वाडिया इंस्टीटूट के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. आरजे आजमी ने कहा कि निश्चित तौर पर पत्रकारिता जन-सामान्य तक विज्ञान को पहुंचाने का काम करती है। लेकिन आवश्यकता है कि किसी भी चीज की रिपोर्टिंग करते वक्त तथ्य की पूरी जांच पड़ताल कर ली जाए। क्योंकि तथ्य को समझे बिना रिपोर्ट को छापने से समाज में सही संदेश नहीं जाता है। अपनी ही एक रिसर्च का उदाहरण देते हुए कहा कि वर्ष 2000 में जिस रिपोर्ट को पूरी तरह से गलत ठहरा दिया गया था, उसे वर्ष 2007 में सत्य करार देते हुए छापा गया। इस मौके पर साहित्यकार लीलाधर जगूड़ ने कहा कि पत्रकारिता एवं साहित्यकार एक दूसरे के पूरक हैं। लेकिन आज के समय में पत्रकारिता के मानदंड में जबरदस्त बदलाव आ गया है। यह सही भी है कि कोई चीज जब तक बिकाऊ नहीं है तब तक टिकाऊ नहीं है। यह सिद्धांत पत्रकारिता के साथ भी है। संगोष्ठि में प्रतिभाग कर रहे पत्रकारों ने कहा कि वैज्ञानिकों को भी अपनी सामाजिक एवं नैतिक जिम्मेदारी समझते हुए किसी भी घटना के वक्त राय या सुझाव देने के लिए आसानी से उपलब्ध होना चाहिए। अकसर देखा जाता है कि घटना विशेष पर वैज्ञानिक इजाजत न होने की बात कहकर अपने विचार व्यक्त करने से बचते हैं। इससे घटना विशेष की सही जानकारी आम व्यक्ति तक नहीं पहुंच पाती और एक भ्रम की स्थिति बनी रहती है।
इस मौके पर डॉ. धीरेंद्र शर्मा, डॉ. देवेंद्र भसीन, डॉ. एमएन जोशी समेत अन्य उपस्थित थे।